सरोवर के निर्मल जल में खड़े होकर उगते सूर्य देव को अर्घ्य अर्पित करेंगे। यह क्षण केवल पूजा का नहीं, बल्कि आस्था, आत्मबल और आध्यात्मिक ऊर्जा के मिलन का प्रतीक माना गया है। जब सूर्य की पहली किरणें क्षितिज से प्रकट होकर जल पर प्रतिबिंबित होती हैं, तब वह क्षण ब्रह्ममुहूर्त की दिव्यता से परिपूर्ण होता है। इस समय दिया गया अर्घ्य न केवल सूर्य की उपासना है, बल्कि प्रकृति, जीवन और समस्त सृष्टि के प्रति कृतज्ञता का भाव है। ऐसा माना जाता है कि इस समय की उदीयमान किरणें मानव जीवन में आशा, स्वास्थ्य, दीर्घायु और समृद्धि का आशीर्वाद प्रदान करती हैं। चार दिनों तक चलने वाला यह महाव्रत तप, संयम और श्रद्धा की पराकाष्ठा का प्रतीक है। कार्तिक शुक्ल चतुर्थी से आरंभ होकर षष्ठी तिथि को समाप्त होने वाला यह पर्व भारतीय लोकजीवन की आत्मा से जुड़ा है। छठ पूजा में व्रतीजन न केवल सूर्य की उपासना करते हैं, बल्कि जल, वायु और पृथ्वी जैसे पंचतत्वों के प्रति भी आभार व्यक्त करते हैं। छठ का प्रत्येक अर्घ्य इस बात का स्मरण कराता है कि मानव जीवन प्रकृति से गहराई से जुड़ा हुआ है और उसका संरक्षण ही सच्चा धर्म है। धर्मशास्त्रों में सूर्य को ‘जीवनदाता’ कहा गया है – वे केवल प्रकाश ही नहीं देते, बल्कि जीवन की ऊर्जा के मूल स्रोत हैं। ‘अथर्ववेद’ में कहा गया है – “सूर्यो आत्मा जगतस्तस्थुषश्च” अर्थात सूर्य ही स्थावर और जंगम जगत का आत्मा हैं। छठ व्रत इसी शास्त्रीय सत्य की लोकानुगत अभिव्यक्ति है। यह व्रत किसी याचना से अधिक एक आभार है – उस दिव्यता के प्रति जिसने जीवन को गति और ज्योति दी है। छठी मईया अर्थात ऊषा देवी को लोकजीवन में मातृशक्ति का स्वरूप माना गया है। वह जीवन की शुरुआत और प्रत्येक नई प्रभात का प्रतीक हैं। लोकमान्यता है कि छठी मईया संतान की रक्षा करती हैं, परिवार में सुख-शांति लाती हैं और रोग-व्याधि से मुक्त जीवन का वरदान देती हैं। यही कारण है कि व्रतीजन पूर्ण निष्ठा और पवित्रता से इस व्रत का पालन करते हैं। वे संध्या और प्रातःकालीन अर्घ्य देकर अपनी साधना को पूर्ण करते हैं, जिससे उनके जीवन में संतुलन, अनुशासन और सकारात्मकता बनी रहती है।
शास्त्रों में वर्णित है कि इस व्रत का मूल स्वरूप नैष्ठिक तपस्या के समान है। इसमें व्रती बिना जल ग्रहण किए, उपवास और ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए चार दिनों तक अपनी इंद्रियों और मन पर संयम रखते हैं। संध्या अर्घ्य के समय सूर्य के अस्त होते हुए चरणों में और उषा अर्घ्य के समय उगते सूर्य के चरणों में अर्पण किया जाता है। यह क्रम जीवन के उत्थान और अस्तित्व के चक्र को प्रतीकात्मक रूप से दर्शाता है – यह बताता है कि हर अस्त के बाद एक नया उदय निश्चित है। छठ पर्व का उल्लेख प्राचीन ग्रंथों और महाकाव्यों में भी मिलता है। महाभारत में द्रौपदी द्वारा सूर्य देव की उपासना का प्रसंग आता है, जहाँ उन्होंने अपने पतियों की सफलता के लिए छठ व्रत किया था। वहीं रामायण में माता सीता द्वारा अयोध्या लौटने के बाद कार्तिक शुक्ल षष्ठी को सूर्योपासना का उल्लेख मिलता है। इन प्रसंगों से सिद्ध होता है कि छठ पर्व केवल लोक परंपरा नहीं, बल्कि वैदिक संस्कृति का जीवंत अंग है। लोक परंपराओं में छठ पूजा को सबसे कठिन व्रतों में से एक माना गया है, क्योंकि इसमें व्रतीजन भोजन, जल और निद्रा त्याग कर पूरी श्रद्धा से व्रत करते हैं। यह संयम और आत्मनियंत्रण का अभ्यास है, जो व्यक्ति को भीतर से मजबूत बनाता है। कहा जाता है कि छठी मईया की कृपा से असंभव भी संभव हो जाता है। इस व्रत की विशेषता इसकी सामूहिकता में निहित है। घाटों पर हजारों की संख्या में व्रतीजन एक साथ खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देते हैं। यह दृश्य केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि सामाजिक एकता और सांस्कृतिक चेतना का प्रतीक होता है। लोकगीतों की स्वर लहरियाँ, “छठी मईया के गीत”, और दीपों की झिलमिलाहट से पूरा वातावरण दिव्यता से भर जाता है। छठ पूजा के पारंपरिक गीतों में जीवन का सार छिपा होता है – “उगी हे सूरज देव, भइल अरघिया के बेरा…” जैसे गीत न केवल भक्ति का भाव जगाते हैं, बल्कि प्रकृति के प्रति प्रेम और सम्मान की भावना भी प्रकट करते हैं। ये गीत लोक की आत्मा हैं, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी इस संस्कृति को जीवित रखे हुए हैं।
आध्यात्मिक दृष्टि से देखा जाए तो उषा अर्घ्य का क्षण आत्मचिंतन का अवसर भी है। जब व्रतीजन सूर्य की ओर अंजलि उठाते हैं, तब वह केवल अर्घ्य नहीं, अपने मन की प्रार्थना, अपने विश्वास और अपने जीवन का समर्पण भी अर्पित करते हैं। यही समर्पण छठ व्रत की आत्मा है – निष्काम, शुद्ध और निस्वार्थ। इस प्रकार मंगलवार की भोर में जब प्रथम किरणें आकाश को आलोकित करेंगी, तब घाटों पर व्रतीजन अपनी आस्था का अर्घ्य सूर्य देव को अर्पित करेंगे। यह केवल व्रत का समापन नहीं, बल्कि नवप्रभात, नवआशा और नवजीवन की शुरुआत होगी। इसमें व्रती महिलाएं पूरे 36 घंटों का उपवास करती है। कई दिनों पहले से ही शुद्धता का ख्याल रखा जाता है। नहाय खाय और खरना से ही इसकी पवित्रता शुरू हो जाती है। बिना खाए पीए छठ का व्रत रखने से शरीर डिहाइड्रेट हो जाता है। इसलिए व्रत खोलते वक्त कुछ खास बातों का ख्याल रखना जरूरी हो जाता है। आइये जानते हैं किन चीजों से छठ का उपवास खोलना चाहिए और व्रत खोलने के बाद किन चीजों का सेवन नहीं करना चाहिए? छठ का व्रत कैसे खोलें? एनर्जी के लिए पीएं ये ड्रिंक- छठ का निर्जला व्रत होता है इसलिए आपको व्रत खोलते वक्त बहुत ज्यादा प्यास लगती है। डाइटिशियन स्वाति सिंह ने बताया कि शरीर व्रत के कारण डिहाइड्रेट रहता है। इसलिए छठ का व्रत खोलने के लिए आपको सबसे पहले ठंडा पानी पीना चाहिए। बेहतर होगा कि आप नारियल पानी या फिर सत्तू घोलकर बनाकर पीएं। इससे शरीर को तुरंत एनर्जी मिलेगी और बॉडी हाइड्रेट होगी। ड्राई फ्रूट्स खाने से मिलेगी ताकत- व्रत खोलने के बाद आप कुछ हल्के फल और मेवा खा सकते हैं। इससे शरीर को एनर्जी मिलेगी। फ्रूट्स और ड्राई फ्रूट्स खाने से विटामन, मिनरल और प्रोटीन मिलता है जिससे आपके शरीर को इंस्टेंट एनर्जी मिल पाएगी। इसलिए इन्हें व्रत खोलने के बाद जरूर थोड़ी मात्रा में खाएं।
फाइबर है जरूरी-छठ का व्रत खोलने के बाद आपको शकरकंद, आलू या कद्दू और लौकी जैसी चीजें खानी चाहिए। लंबे समय तक भूखे रहने से पाचन पर असर होता है। लेकिन इन चीजों को पचाना आसान होता है। इतनी लंबी फास्टिंग के बाद आपको फाइबर से भरपूर और जल्दी पच जाने वाली चीजें डाइट में शामिल करनी चाहिए। आप थोड़ा दाल भात भी खा सकते हैं। छठ उपवास खोलकर न खाएं ये चीजें छठ के उपवास के बाद तुरंत ही पूड़ी-पकवान खाने से आपको बचना चाहिए। ज्यादा तला भुना खाने से एकदम गैस और एसिडिटी की समस्या हो सकती है। ज्यादा तेल वाला और चटपटा खाने से नुकसान हो सकता है। मसालेदार खाने से पाचन क्रिया पर असर पड़ सकता है। छठ के व्रत के बाद नॉनवेज यानि मासाहारी खाना नहीं खाना चाहिए। इस तरह के खाने को शरीर एकदम से पचा नहीं पाता है। इसके अलावा ज्यादा चाय या कॉफी पीने से भी आपको बचना चाहिए। इससे शरीर में एसिड बन सकता है।
